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कविता

बहुत है

शंभुनाथ तिवारी


सदियों से सूने अधरों पर एक मंद मुस्कान, बहुत है!

जीवन की इस निविड़-निशा में, जाने कितने पल आते हैं,
मूक व्यथा के बादल आँसू बन, आँखों से ढल जाते हैं।
ऐसे पल अंतस से उपजा हुआ एक ही गान, बहुत है।

पीड़ाओं का साम्राज्य जब नभ-सा विस्तृत हो जाता है,
मर्माहत मन गहन व्यथा के शोक-सिंधु में खो जाता है।
ऐसे अंधकार में उपजी एक किरन अम्लान, बहुत है।

खिन्न हृदय की विकल वेदना में हम गीत कहाँ से गाते,
होठ काँपकर रह जाते हैं बोल नहीं अधरों तक आते।
वीणा के टूटे तारों से निकल सके जो तान, बहुत है।

औरों की पीड़ा से कितने नयन आजकल नम होते हैं,
सच्चा स्नेह दिखाने वाले लोग बहुत ही कम होते हैं।
अगर एक भी जीवन भर में मिल जाए इनसान, बहुत है।

जीवन में सब कुछ मनचाहा मिल जाए यह नहीं जरूरी,
कहते-कहते करुण कहानी रह जाती हर बार अधूरी
ऐसे में जितने भी पूरे हो जाएँ अरमान, बहुत है।


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