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कविता

चिमनियों की नोक पर

जगदीश श्रीवास्तव


धुआँ ही धुआँ चिमनियों का घर
डूबता शहर।

लोग जहाँ ढोते हैं रिश्ते अनाम
कागजी बिछोनों पर लेट गई शाम
सूरज ने काट दिए चाँदनी के पर
भूल गए हम आँगन माटी के घर
हमको ही डसता है
उम्र का जहर।

दर्द की सलीबों पर लटकी है प्यास
बंद किसी कमरे में खिड़की के पास
कौन यहाँ पिघलेगा कहीं भी ठहर
भीड़ सड़क चौराहे सब हैं बेखबर
फुटपाथों पर ठहरा
दर्द का नगर।

हाथ में कटोरा है बचपन नीलाम
क्या करे वसीयत में इस सदी के नाम
कफन बहुत छोटा है दिखते हैं पाँव
जिस्म हुआ पत्थर का डूब गई नाव
भीड़ का समुंदर है
आदमी लहर।


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