अब तो सच कहने के दिन आए।
एक-एक कर क्रम से
सब पड़ाव छूट गए
जिन के हित सच नहीं
हम से वे रूठ गए
किस-किस को क्या समझाते
अपने में रहने के दिन आए।
संवेदी बस्ती में
द्वार-द्वार ताले हैं
ममता के महलों में
मकड़ी के जाले हैं
रुग्ण हुए संबंधों के
शनैः-शनैः ढहने के दिन आए।
जाने क्या फीड किया
हमने कंप्यूटर में
संवेदनहीन हुई, ईंट-
ईंट घर-घर में
ई-मेली परिवर्तन के
नित प्रहार सहने के दिन आए।
चित्र नहीं टाँग सके
मन की दीवारों पर
खड़े रहे स्वप्न महल
कच्चे आधारों पर
मुँह कुचली इच्छाओं के
विगलित क्षण बहने के दिन आए।