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कविता

समय के तनाव

मुकुट सक्सेना


ऊपर से भरे पूरे भीतर से रोते हैं
हम में से ज्यादातर ऐसे ही जीते हैं।

आँखों में उड़ती जो
अबाबील आस की
घोंसला बनाने को
तिनके कब पाती है
अपने ही पंख टूट
चुभते हैं अपने ही
अपनी ही लाचारी
लोरयाँ सुनाती हैं
अंबर की ऊँचाई आकर्षित करती पर
अनचाहे पिंजरे में जीवन क्षण बीते हैं

परिजात वृक्षों पर
कोटरों में तोतों के
बच्चों को साँपों ने
रातों में खाया है
कलरव जो समझ रहे
खग भाषा ज्ञान बिना
तोतों ने दिन निकले
शोर भर मचाया है
नाचेगा कौन यहाँ नाग, कोई कृष्ण नहीं
इसीलिए धूप चढ़े, होठों को सीते हैं

सपनों की कोंपल पर
पड़ी ओस बूँदों को
चाट रात काटी है
भटकते अभावों ने
दिन के बंजारे को
क्षत विक्षत कर डाला
कंकरीली राहों पर
समय के तनावों ने
मंजिल तक पहुँचेंगे कैसे ये पाँव थके
फटे हुए जूतों के टूट रहे फीते हैं


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