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कविता

आखरी बटन
मुकुट सक्सेना


शूल बना दर्पण की किरचों का
एक एक कण

पत्तों से बिखर गए पिछले संबंध  
टूट गए पक्के से पक्के अनुबंध
जीवन को निगल गई स्वासों की पर्त
हर ऋतु में कसक गई अनबोली शर्त
बर्फ-सी बिखेर गया आँगन में
सुधियों का धन

पन्नों को पलट गई चंचल वातास
मुखर हुआ एक ओर कच्चा इतिहास
सभ्य कहे जाने को पहने थे वस्त्र
सत्य मगर छिपा नहीं फैला सर्वत्र
टूट गया कुर्ते के कालर का
आखरी बटन

सीमाएँ लाँघ गया अभिमानी दर्प  
मन ऐसे मटका ज्यों अंधा हो सर्प
केंचुली ने दृग पर डाल दिए पर्दे
ज्ञात नहीं काल कब और विवश कर दे
फिसल गया जीवन की मुटठी से
संयम का क्षण


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