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कविता

शब्द सृजन के पंख खोलते

मधुसूदन साहा


गंध गाँव से जब-जब आती
शब्द सृजन के पंख खोलते।

बागों में पंखुरियाँ खिलतीं
कलियाँ खुशबू के संग मिलतीं
यमुना के तट पर राधा की
पलकों में मृदु छवियाँ पलतीं
कहीं दूर से स्वर वंशी के
अंतर्मन में अमिय घोलते।

मन में मधुरिम यादें आतीं
अंग-अंग में चुहल जगातीं
साँसें बन जाती हैं दुल्हन
कदम-कदम पर स्वयं लजातीं
महुए की जब खुशबू आती
अंतस के संकल्प डोलते।

कच्चे घर भी नीके लगते
रूखे-सूखे घी के लगते
सारे अनुपम आकर्षण भी
इसके आगे फीके लगते
गाँवों में तो स्वर्ग बसा है
पुरखे अब भी रोज बोलते।

चाहे सन्नाटा छाया हो
या दुर्दिन का खत आया हो
फिर भी अपना गाँव किसी से
याद नहीं कब घबराया हो
हम दहशत के पलड़े रखकर
विश्वासों को नहीं तोलते।


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