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कविता

शब्द सृजन के पंख खोलते

मधुसूदन साहा


आँगन की गौरैया अब तो
उड़ना भूल गई

सहमी-सहमी रहती घर के
अंधे कोने में
कोई फर्क नहीं पड़ता है
घर में होने में,
सुबह-सुबह छज्जे पर जाकर
जुड़ना भूल गई

औने-पौने जो मिल जाता
चुगकर जीती है,
सारी सुख-सुविधाओं से वह
रहती रीती है,
बुलबुल की किस्मत से अब तो
कुढ़ना भूल गई

बहुत दिनों से खलिहानों में
दौनी नहीं हुई,
वर्षों से उजड़ी छपरी की
छौनी नहीं हुई,
पुरवैया भी इधर आजकल
मुड़ना भूल गई


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