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कविता

कहाँ गए?

मधुसूदन साहा


तू चुप थी
पलकें रोती थीं जाने के दिन

जिस दिन आई थी दुलहन बन
मेरे आँगन,
चौके में जीवित लगते थे
सारे बरतन,
कहाँ गए
तेरे हाथों के खाने के दिन

तू थी तो पायल कंगन सब
बजते रहते,
अँखियों में नित सुंदर सपने
सजते रहते
कहाँ गए
धड़कन में खुशियाँ छाने के दिन

तू थी तो हर मौसम मुझ पर
दयावंत था,
मेरे मन का कोना-कोना
कलावंत था,
कहाँ गए
बाँहों में भरकर गाने के दिन

बिस्तर पर थी फिर भी मेरा
मन रमता था,
बातों का सिलसिला न पल भर
भी थमता था,
अब जीने
पड़ते औरों के ताने के दिन

सूई-से चुभते हैं रह-रह
दिन एकाकी
कैसे काटूँगा तेरे बिन
साँसें बाकी
कहाँ गए
सुख के गुलमोहर पाने के दिन।


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