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कविता

माँ थी तो
मधुसूदन साहा


माँ थी तो अपना घर मुझको
सबसे अच्छा घर लगता था।

आस लिए आँखों में हरदम
खुलता था घर का दरवाजा
माँ के मुख से मौलसिरी-सा
स्वर झरता था ताजा-ताजा,
जहाँ चाहता खेला करता
नहीं किसी से डर लगता था।

कुशल क्षेम सब पूछ पाँछकर
बचपन के दिन याद दिलाती
जो मुझको अच्छा लगता था
अपने हाथों स्वयं खिलाती,
माँ के ममतामय अंतस से
छोटा हर सागर लगता था

उनकी बातें थीं चंपा की
खुशबू से भी ज्यादा मोहक
कभी मुझे कालिंदी लगती
कभी बनारस का गंगोदक,
आशीषों के अक्षत का-सा
हर अक्षर-अक्षर लगता था।

जब भी वह खत लिखवाती थी
मेरा अंतर अकुलाता था
सब कुछ छोड़-छाड़ कर सीधे
माँ के पास पहुँच जाता था,
अश्रु-कणों से भीगा अक्षर
मुझे बहुत कातर लगता था।


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