चली आँधियाँ आघातों की
कौन बचाएगा।
घर-घर रिश्ता टूट रहा है
कच्चे धागों सा,
भरत सरीखा भाई भी अब
डसता नागों-सा
सूई चुभती जब बातों की
कौन बचाएगा।
लोग चलाते दाँव हमेशा
अब शकुनी बनकर
केवल अपने हक की खातिर
अड़ जाते तनकर,
बात छिड़े जब औकातों की
कौन बचाएगा।
सदियों से जो भाई-चारा
घर-घर चलता था,
एक दूसरे के चूल्हे से
चूल्हों जलता था,
धमकी अब मिलती लातों की
कौन बचाएगा।
गली-गली में गूँज रहा जब
रोज धमाका हो,
इस हिस्से में दूध-मलाई
उसमें फाका हो,
साँस घुटे जब जज्बातों की
कौन बचाएगा।