पता पूँछते हँसी खुशी का
भटक रहे हम महानगर में।
डूबी रहती चहल पहल में
आठों पहर यहाँ की सड़कें
रोज बाल्टियों की
लाइन भी
लग जाती है तड़के-तड़के
चलते-चलते शाम हुई पर
अटके हैं हम अभी डगर में।
उम्र दराजों की काठी पर
नजर लगा देता है
बूढ़ा बच्चा
दस किलो का बैग
पीठ पर सह लेता है
तृप्ति ढूँढ़ती रही जिंदगी
तर्कों के ऊसर-बंजर में।
होड़ लगाती रोबोटों से
घर-बाहर
जिंदा कठपुतली
दिख जाते
स्विच ऑफ-आन करते
ऊपर के चेहरे असली
यहाँ लड़खड़ाती जबान है
अक्सर प्रश्नों के उत्तर में।
डर जाती हैं
बाजारों की चर्चा से
गरीब घरवाली
पिछली बार गवाँ आई है
नइहर वाली
झुमकी-बाली
भरी झुग्गियाँ भी
गोरी रजधानी के काले अंतर में।