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कविता

हमारा नन्हका

मधुकर अस्थाना


शिशिर और हेमंत
सहन कर
दिन अब बड़ा हुआ
और हमारा नन्हका भी
पैरों पर खड़ा हुआ।

कंधे पर बैठना
घूमना
रोज मुहल्ले में
खुश होता है
धमा-चौकड़ी
हल्ले-गुल्ले में
सबकी आँखों का तारा
सबके सिर चढ़ा हुआ।

मुश्किल होता
उसे मनाना
कभी रूठने पर
पूरा घर हलकान
खिलौना
कभी टूटने पर
घोड़ा बना रहा दादा को
ऊपर अड़ा हुआ।

किलकारी से
भर देता
आँगन का सूनापन
चहक रहा
पूरा घर
जब से आया है बचपन
कहा न माने करे अनसुनी
चिकना घड़ा हुआ।


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