बदली दुनिया, बदला मौसम
किंतु न बदले हम
बीती उमर
अभी तक खुशियों की आँखें हैं नम।
राजघाट में
जंतर-मंतर तक
सब हार गए
रोज कोसते
पानी पी पीकर बेकार गए
जुगनू हुई रोशनी
इतना सघन हो गया तम।
दिवा स्वप्न की
हवाहवाई
घर हैं कंधों पर
हाथ कटा हमने
जागीर छोड़ दी अंधों पर
नीति-नियम की
राख सहेजे साँसें हैं बेदम।
गुत्थी पर गुत्थी
गाँठों पर गाँठें
पड़ी हुई
सीढ़ी-सीढ़ी चढ़तीं
ये पीड़ाएँ बड़ी हुईं
शीश कटा कर
स्वाभिमान की बातें हुई गरम।
हुआ धौंकनी
रामराज का
जाने क्यों सीना
कितना मुश्किल भीड़ तंत्र में
मानुस का जीना
होता रहा सुबह
जन गन मन संध्या को मातम।