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कविता

गिरगिटिया रूप

मयंक श्रीवास्तव


मुद्दत से
मौन है नदी
कब आएगी उफान पर

कसमों के सब्ज बाग की
सारी रंगत निकल गई
कल तक मीठी जुबान थी
तीखेपन में बदल गई
गिरगिटिया
रूप देख कर
शंका होती निदान पर

घर पर तैनात पहरुए
घर में ही कर रहे गबन
परजा के भाव पुंज का
चुपके से कर दिया दमन
बैठेगी
कल कलावती
संकटबेधी विमान पर

अंतर्मन के मिठास की
सोनजुही खिल नहीं सकी
हम जिसको ढूँढ़ने चले
वह दुनिया मिल नहीं सकी
सपनों की सोनचिरैया
कब जाएगी उड़ान पर


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