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कविता

मर्यादा ने कसम तोड़ दी

मयंक श्रीवास्तव


खुली हवा में भी
अब जीना
मुश्किल लगता है
हमको हर पल
षड्यंत्रों में
शामिल लगता है

जीवन अनुबंधित है
गुब्बारों के धागों से
निकल नहीं पाए अब तक
नारों के आगे से
दाना चुगता हुआ
कबूतर
जाहिल लगता है।

आडंबर का मुकुट
पहनकर बने कोई राजा
जिसका खाते हैं
उसका ही बजा रहे बाजा
उल्टा दाँव
सिखाता जो भी
काबिल लगता है

शुचिता की अब बात
रह गई केवल कहने की
मर्यादा ने कसम तोड़ दी
हद में रहने की
भटकी हुई
हया को सब कुछ
हासिल लगता है।


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