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कविता

नासमझ बच्चे नहीं

मयंक श्रीवास्तव


अर्थभेदी शब्द अपने
पास बारंबार आए
किंतु राजा
कह रहा है
हम सृजन के गीत गाएँ।

हलचलों के साथ में
उन्मादियों के काफिले
संत साधू बेझिझक
उन्मादियों से जा मिले
हार थककर
दूर होती
जा रहीं संभावनाएँ।

व्यंजना के द्वार पर
बैठे हुए हैं मनचले
बदनियति के स्वामियों
के हो रहे चर्चे भले
कब तलक
उपलब्धियों का
आवरण नकली चढ़ाएँ।

भावना को शिल्प ने
अपना अभी माना नहीं
वक्त ने अब तक हमारा
दर्द पहचाना नहीं
नासमझ
बच्चे नहीं हैं
नाव कागज की चलाएँ।


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