सोन चिरैया,
हर दरवाजे मंगल गाएँ।
खिली गुनगुनी धूप
मही-माँ का मन परसे
ताती नरम बयार
सघन हरियाली बरसे
गंगाजल, तुलसीदल
घर-घर गैया-बछरू
कुंकुम, बिंदी, मेहँदी संग
महावर सरसे
हर्षित पिता असीसें
अम्मा सगुन मनाएँ।
जगे रंगोली-सा दिन
रात निरापद सोए
काग मुंडेरे, सुगना पिंजरे,
खुशबू बोए
बूढ़ी उमर संजोये धागा
हर जुड़ाव का
और दंतुरित हँसी
उत्सवी सुमन पिरोए
‘तीरथ’ बनी गिरस्थी
‘बारह कुंभ’ नहाएँ
मछुवारे बस करें
सियासी जाल समेटें
पच्छिम की जानिब
उड़ते मस्तूल लपेटे
आकाशी आँधियाँ थमें
धरती सुस्ताए
‘दिल्ली’ बने ‘द्वारका’
‘कृष्ण-सुदामा’ भेंटे
‘तंत्रलोक’ के
रहने लायक देश बनाएँ।