साँझ हुई
चलो घर चलें।
दिन भर हम
अनमने रहे
कुछ थे, पर
कुछ बने रहे
फाइल के
सर्द हाथ में
हम बजते झुनझुने रहे।
उजली-सी धूप,
हम हँसें,
भीतर, हिमखंड-सा गलें।
राह तके
एक प्यार है
आँगन भर
इंतजार है
वत्सलता-
है रंभा रही
मृगछौनों की पुकार है।
‘दरपन’ के मौन
होंठ पर
मनचाहा छंद बन ढलें।