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कविता

चलो घर चलें

राधेश्याम शुक्ल


साँझ हुई
चलो घर चलें।

दिन भर हम
अनमने रहे
कुछ थे, पर
कुछ बने रहे
फाइल के
सर्द हाथ में
हम बजते झुनझुने रहे।

उजली-सी धूप,
हम हँसें,
भीतर, हिमखंड-सा गलें।

राह तके
एक प्यार है
आँगन भर
इंतजार है
वत्सलता-
है रंभा रही
मृगछौनों की पुकार है।

‘दरपन’ के मौन
होंठ पर
मनचाहा छंद बन ढलें।


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