उमर बिता ‘परदेस’
सदाशिव, जन्मभूमि आए।
सबसे मिले
मगर उनसे कोई भी नहीं मिला
रात उनींदी
अनदेखी से करती रही गिला
जल-जल बुझती चिलम
रात-भर, फिर-फिर सुलगाए।
दिन भर,
पहचानों की पोथी, उलट-पलट पढ़ते
ऊब गए -
रिश्तों की मनचाही मूरत गढ़ते
ठंडी राख कुरेदी,
चिनगी एक नहीं पाए।
नाम आदमी के,
संवेदनहीन मिले चेहरे
ऊँट चराते मिले
भद्रजन भी, निहुरे-निहुरे
तरसी बूढ़ी उमर
कि, कोई बोले बतियाए।
महुआ, आम, नीम, बँसवारी
खोजे नहीं मिले
पुरखों के आशीष ढूँढ़ते
पग-पग पाँव छिले।
इसको कभी, कभी उसको
सुधियों ने गुहराए।