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कविता

मेरा शहर

राधेश्याम शुक्ल


एक अंधी भीड़ का
भूगोल है मेरा शहर
आँधियाँ, विज्ञापनी इतिहास रचती हैं।

आसमाँ सर पर उठाए
घूमती हैं
हर जगह बौनी महत्वाकांक्षाएँ
वक्त की काली सियाही
छापती है
कीर्तिमानों की समीकरणी कथाएँ,

अस्तगामी सूर्य की
आहत प्रथाएँ बेतुकी
जुगनुओं की भीड़ अपने पास रचती हैं।

हर गली, घर से
अजूबी बात करतीं
जिंदगी के पक्ष में प्रेतात्माएँ
सरफिरे माहौल को
गरमा रहे हैं
जंगली राजे तथा आदिम प्रजाएँ

भद्रता ओढ़े हुए,
आंतक की खामोशियाँ
राजपथ पर खुशनुमा एहसास रचती हैं।


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