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कविता

कबीरा क्या लेगा

राधेश्याम शुक्ल


चमकदार चीजों से
भरा पड़ा ‘ग्लोबल बाजार’
कबीरा, क्या लेगा।

इधर देख,
सोने की लंका
जहाँ सभी हैं सात हाथ के
सबके अपने मोलभाव
पर सभी बिसाती
एक साथ के

सौदे सभी नकद करते हैं
चलता नहीं उधार
कबीरा क्या लेगा।

बिकती हैं जरूरतें भी
अचरज हैं
ऐसी भी दुकानें
इस दर -
तेरी सुरति-निरति के
नहीं रह गए कोई माने

खरीदार खुद बिक जाएगा
ऐसे हैं आसार
कबीरा क्या लेगा।

साँसों की कीमत पर भी
‘कैरियर’
खरीद रहे हैं बच्चे,
खेल-खिलौने
सब झूठे पड़ गए
रह गए सपने सच्चे

भाग यहाँ से
चादर तेरी, लेंगे लोग उतार
कबीरा क्या लेगा।


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