अखबारी जाल
क्यों बुनें
आओ, हम पास-पास बैठें
आपस में कुछ कहें-सुनें।
क्षितिजों तक,
फैले विस्तारों में
बौने एहसास
कहो क्यों बोएँ
हम-तुम तो,
संगम के तीरथ हैं
रेतीली प्यास
भला क्यों ढोएँ
कस्तूरी हिरन
क्यों बनें
खोकर पहचान
भला क्यों
काँटों में उलझ सर धुनें।
आँगन को
बाँटती दीवारों में
दरवाजे खुलें
प्यार बतियाए
बारूदी गंध लिए -
कातिल मन
खुशबू का
इश्तहार बन जाए
‘नक्शों’ में -
भटक गए हम
‘घर’ तक पहुँचा सके हमें
राह वही आज हम चुनें।