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कविता

सवालों के शहर में

राधेश्याम शुक्ल


फिर
सवालों के शहर में,
उठीं शंकाएँ।

खंडहरों में
आहटें हैं
सल्तनत की
होड़
इतिहासी शिला पर
दस्तखत की

लिख रहीं खत
रोषनी को
बुझी उल्काएँ।

शोर की
लिपि में
हवाओं की जुबानी
छप रही है
वक्त की
अंधी कहानी

चल रही हैं
राजपथ को
नई संज्ञाएँ।

हर दरो-दीवार पर
आसीन
भय है,
आँधियों के
लौट आने का
समय है।

दिन हुए चंगेज
सारी लाँघ सीमाएँ।


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