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कविता

सुबहें हुई हादसों की

राधेश्याम शुक्ल


सुबहें हुई हादसों की हैं
संध्याएँ आतंक की
फिर भी दिनचर्या खुश है
क्या राजा, क्या रंक की।

सिरहाने कुर्सियाँ
और पैताने लफ्फाजी
खुद ही है ‘फैसला’
‘अदालत’ खुद ही राजा की।

नदी, नाक के ऊपर,
नस-नस बहती कथा कलंक की।

राजमार्ग का जाम लगा है
‘परजा’ के कांधे
मंसूबों की गठरी -
हर कोई खोले बाँधे

सन्न हुए मौसम
सहते पीड़ा अखबारी डंक की।

नाई की बरात में
सब हैं ठाकुर ही ठाकुर
बहती गंगा
सभी हाथ धोने को हैं आतुर

उजले पन्नों, स्याह कहानी
छपती रोज दबंग की
फिर भी दिन चर्चाएँ खुश हैं
क्या राजा, क्या रंक की।


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