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कविता

मन की गहरी घाटी में

धनंजय सिंह


मन गहरी घाटी में
क्या उतरेगा कोई
जो उतरेगा वह फिर इससे निकल न पाएगा।

फिसलन भरे, नुकीले पत्थर वाले
पर्वत हैं
जो घाटी को सभी ओर
युग-युग से घेरे हैं
सूरज रोज सुबह आता है
शिखरों तक
लेकिन नहीं तलहटी तक आ पाते
कभी सबेरे हैं

मत झाँको तुम
इसकी सूनी अंध गुफाओं में
आँखों वाला अंधकार मन में बस जाएगा।

कौन चुनौती स्वीकारेगा
किसको फुरसत है
इस घाटी में आकर
मन का नगर बसाने की
सन्नाटे की गहराई को
छूकर देखे फिर
चीर शून्य को
प्राणों का संगीत गुंजाने की

निपट असंभव को संभव
कोई, कैसे कर दे
निविड़ रात्रि में इंद्रधनुष कैसे खिल पाएगा।


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