दहके हुए पलाश वनों में
तप कर काला हिरन हुआ मन
कैसे अपनी प्यास बुझाए।
मृग मरीचिकाएँ फैली हैं
जंगल के हर ओर छोर तक
कस्तुरी की गंध समाई
लेकिन मन से पोर-पोर तक
रह-रह किसी झील-तट बजती
वंशी की धुन टेर लगाए।
दूर कहीं जल स्रोत मिला है
हवा कह गई है कानों में
उड़ती रेत, बगूले उठते
भ्रमित हो रहे, अभियानों में
किसी अहेरी की आहट सुन
आकुल प्राण बहुत घबराए।
अभी इधर थी, अभी उधर थी
कोई छाया जादूगरनी
भूल गया दरवेश कहीं रख
अपनी कंठी और सुमिरनी
मन हठयोगी बैठ गया है
अपनी धूनी यहीं रमाए।