निकल आए हम
गहन अंधी गुफाओं से।
था न जिनका
रोशनी से
नाम भर नाता
शब्द भूले से नहीं
कोई जहाँ आता
जहाँ केवल घुटन
मिलती थी हवाओं से।
भावनाओं का
नहीं था
ज्वार या भाटा
हर दिशा में गूँजता था
एक सन्नाटा
विष जहाँ विद्वेष रखते थे
दवाओं से।
नहीं
कोई छुअन
तन मन को जगा पाती
चाह कोई भी
न मन में सुगबुगा पाती
घिरा जीवन था जहाँ
बस वर्जनाओं से।
साँप
बिच्छू
अजगरों का वास था
बस, चतुर्दिक
मरघटी एहसास था
प्राण स्पंदन घिरा था
मूर्च्छाओं में।