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कविता

आहें भरती वनखंडी

भगवत दुबे


राजमार्ग में, भटक गई है
अपनी पगडंडी
पगड़ी बेंच, सिलाई उनने
                       खादी की बंडी।

राजनीति ने अगुआ कर ली
वन की हरियाली
सुषमाहीन, आज दिखती है
प्रकृति हाथ खाली
घुट घुट फैक्टरियों में
                       आहें भरती वनखंडी।

होने लगी सगाई
सत्ता ठेकेदारों की
फसलें उगने लगीं
चतुर्दिक भ्रष्टाचारों की
आश्वासन की खिचड़ी पकती
                       टंगी दूर हंडी।

सत्ता के ये सांड
फसल चरने मतपत्रों की
उड़ा धज्जियाँ रहे
झगड़ संसद के सत्रों की
मंत्र प्रगति के पढ़ते हैं
                       ये ढोंगी, पांखडी।


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