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कविता

तटस्थता की खूँटी

वीरेंद्र आस्तिक


संसद में
घुस आए दागी
और हमीं थे ड्यूटी पर।

क्या हम, क्या तुम
सब ही तो
चक्रव्यूह के हिस्से हैं
अलग-अलग रोजी रोटी है
पर शामिल किस्से हैं

रीझ गया है प्रजातंत्र ही
मुसोलिनी की ब्यूटी पर।

भाव प्याज का वे
क्या जाने
महँगाई पर भाषण
चमक मीडिया भी जाए
कर महाबली के दर्शन

धर जनता पर पाँव
चढ़ गए
है सत्ता की तूती पर।

कूटनीति के हथियारों से
हथियाएँगे शासन
वाग्देवि को वश में करके
करते वाणी वर्शण

घूम रहा है
समय हमारा
तटस्थता की खूँटी पर।


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