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कविता

दीवाली

वीरेंद्र आस्तिक


हा! दीवाली,
हा! दीवाली
पीड़ा ही पीड़ा दे डाली
जेब भर गई जो थी खाली।

बेंच डेलियाँ
रही लड़कियाँ
धुनी रुई ले घूमें डलिया
कोई नहीं
पूछता उनसे
लूट रहा धन ग्लोबल खु्शियाँ।

आँसू से
पूजा करवाती
लक्ष्मी जैसी भोली भाली।

श्रम की
स्वेद-संपदा महकी
दीप बालकर बड़की चहकी
खीलों में
बिक गई दिहाड़ी
आ न सकी छोटू की गाड़ी

तेल चुक गया
दीप बुझ गया
दिन फीका था रजनी काली।


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