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कविता

नए संवाद की आमद

निर्मल शुक्ल


अब नहीं भर पाएगी
जो आज दूरी हो चुकी है।

हाथ छोटे, मुट्ठियों में
कस गई सारी लकीरें
हर हँसी में
घुल रही है
ओठ की रक्ताभ चीरें

इस कठिन संधान में
हर दृष्टि छूरी हो चुकी है।

काल की चौपाल में
छोटी, बड़ी कैसी जमातें
छावनी के बीच में ही
पिट रहीं
जिंदा बिसातें

मात खाती बाजियों की
आयु पूरी हो चुकी है।

किंतु अब भी है
विकल्पों में,
नहीं कुछ भी असंभव
देशहित में क्या विवशता
क्या विभव कैसा पराभव

हाँ ! नए संवाद की
आमद जरूरी हो चुकी है।


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