इतनी विषम परिस्थिति में भी
	बुझा नहीं है
	अपना पानी।
	
	एक पटल पर
	रखते हैं हम
	प्यादे, फीले और वजीर
	फिर पढ़ते हैं
	निर्जीवों की
	दम भरने वाली तासीर
	
	चालें शह-मातों की हम तब
	चलते अनदेखी
	अनजानी।
	
	वर्षों से हम
	रावण को भी
	जिंदा रखते हैं हर साल
	लेकिन उसका
	नहीं पालते
	काला-मंतर मायाजाल
	
	आँख मूँद कर अभिमानी की
	फूँक डालते
	कुल शैतानी।
	
	बस यों ही
	इन कठिन पलों को
	जीने के अभ्यास किए हैं
	राधा के संग
	रास रचा है
	सीता के वनवास जिए हैं
	
	अभी अनगिनत संदर्भों में
	कई बिसातें
	हमें बिछानी।