खुशियों वाले दिन सपनीले
फिर दोहराते हम।
पुरखे होते
डाँट-डपटकर
समझाते सब अच्छा होता
मैं भी होता
संग साथ में
हाँ पर थोड़ा बच्चा होता
वे ऊँचे स्वर के संबोधन
फिर सुन पाते हम।
जब-जब
इन राहों से गुजरा
एक महक अक्सर मिलती है
वह जानी पहचानी
खुशबू
शायद मुझमें ही रहती है
वे संप्रेरण के संवेदन
फिर छू पाते हम।
ढूँढ़ रहा हूँ
संदर्भों में
संबंधों के अपनेपन को
अंतर्मन तक
घर कर बैठे
इस धड़कन के पागलपन को
काश उँगलियाँ पकड़े
वे पल फिर जी पाते हम।