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कविता

रिक्त संवाद

निर्मल शुक्ल


इन बस्तियों के रंग सारे
हो चुके मैले
तुम्हें दिखते नहीं क्या ?

उग चुके हैं
इस सड़क की खाल पर
मोटे चकत्ते
पेड़ भी मुजरिम बने
बैठै हुए हैं अब निहत्थे

लग गए हो तुम न जाने
कौन-सी दुनिया में जीने

रिक्त संवादों के जो
आकाश हैं फैले
तुम्हें दिखते नहीं क्या ?

भूल बैठे तुम
कथाओं में झलकती
तंगहाली
वह सुबह से शाम तक
विद्याव्रतों के पेट खाली

अब नहीं पहचानते तुम
क्या पसीने चाक सीने

ये विदेशी तान पर
होते यहाँ बैले
तुम्हें दिखते नहीं क्या ?


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