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कविता

द्रोहकाल

निर्मल शुक्ल


बारूदों ने लिखा
कहर का
एक नया-अध्याय।

दिल दहलाता खौफ
शहर के चेहरे पर दिखता है
खून, जिल्द पर
फिर किताब की, शर्मनाक
लिखता है

हाथ मदद को
उठते लेकिन
सबके सब असहाय।

पल में टूट-टूट जाते हैं
भारी भरकम लोग
चश्मदीद है
किंतु हवा से
मिला न कुछ सहयोग

धुआँ-धुआँ है
खुशहाली में
जीने का अभिप्राय।

अपना, अनपढ़ सभ्य घरौंदों
वाला एक शहर
आतंकों के
द्रोहकाल को
ढोता आठ-पहर

उस पर बैठा
घात लगाए
दिशाहीन समुदाय।


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