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कविता

तुम जानो हम जाने

निर्मल शुक्ल


तुम्हें बताना क्या
सब कुछ तो
तुम पर बीता है।

हरी-दूब पर
पल दो पल जो
तलुवे चल पाते थे
मुँह भर
खाने की खातिर ही
ढोर मचल जाते थे

उनसे पूछो
जिनका
अबकी सावन रीता है।

कैसी नौबत
कौन नगाड़े
सारे एक बहाने
गीला-मौसम
सूखा-मौसम
है बस ढोल सुहाने

मर जाता है
यहाँ वही जो
थोड़ा जीता है।

सन्नाटे तो
लील चुके हैं
कान्हा की मृदु तानें
राम नाम की
नाकेबंदी
तुम जानो हम जाने

गीता ही है
जिससे मन को
तनिक सुभीता है।


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