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कविता

आदमी ने वघनखा पहना

रामसनेहीलाल शर्मा ‘यायावर’


शेर उस दिन से
अहिंसक हो गया है
आदमी ने
वघनखा जिस रोज पहना।

सभ्यता भयभीत हिरनी-सी
निरंतर भागती है
बाँसुरी बंदूक से
अपनी सुरक्षा माँगती है
बुद्ध हैं अब शांत
भौंचक, मौन, व्याकुल
सीख आया आदमी
           बारूद कहना।

यह नया बाजार अब
पर नोंचता है
तितलियों के
तल रहा तेजाब में अंडे
सुनहरी मछलियों के देखकर
वैश्वीकरण की अर्चनाएँ
आ गया
बूढ़ी नदी को मौन बहना।

रेत के विस्तार में
सब दृश्य खोए बिंब टूटे
कारवाँ बढ़ता गया
पीछे महज हम लोग छूटे
छेद अब
ओजोन पट्टी के हृदय में
साँस को
सूखी हवा के साथ रहना।


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