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कविता

कहाँ बची ?

रामसनेहीलाल शर्मा ‘यायावर’


भीतर-बाहर
कहाँ बची अब
हीरामन, हरियाली।

हर मौसम का
पतझड़ से अब
है गहरा रिश्ता
पैनी आरी ने
पीपल का
बाँध दिया बस्ता
परसों क्रूर कुल्हाड़ी आई
लिए दाँत पैने
छीन ले गई
बाबा बरगद के
हाथों की थाली।

अमराई में
रोज रोज हैं
खटपट के किस्से
चोटी हुई चाँदनी की
हो रहे धूप के हिस्से
हार गया
उजले सपनों को
देख-देखकर माली।

झंझा का डर वहीं
बसंती पवन डराती है
सावन में उर्वरा धरा
प्यासी रह जाती है
जहाँ घोंसले को
गोरैया ने
तिनके रखे
काठबजार गई है
कटकर
आज वही डाली।


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