दिन गुजरते दबे पाँवों
चोर जैसे
बीततीं चुपचाप तारीखें
सुस्त कदमों
बीतते इस दौर से
हम भला सीखें तो क्या सीखें।
काँच की किरचों सरीखे टूटकर
बिखरती हैं राह पर
हर सुबह बाधाएँ
लादकर दुर्भाग्य के
अभिलेख सर पर
उतरती हर शाम कुछ अज्ञात छायाएँ;
माँगती शनि की अढ़ैया से
उमर यह -
चंद मंगलवार की भीखें।
चुक गए हम यों
जनम से मृत्यु तक
जोड़ने में दिन, महीने, साल को
क्यों न हो हम
समय के सापेक्ष कर लें
इस सदी की सुस्त कछुआ चाल को,
खो न जाए -
सिंधुघाटी में कहीं
प्रार्थनाओं से मिलीं नववर्ष की चीखें।