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कविता

आश्वासन भूखे को न्यौते

यश मालवीय


पग पग पर आहत समझौते
दादी माँ का पान सुपारी
पिछली पहरी हुआ उधारी
अब घर में हैं सिर्फ सरौते

जीवन किसी मुकदमे जैसा
तारीखों पर हैं तारीखें
चीर गया मन का सन्नाटा
बधिक कहाँ सुनता है चीखें

काठ मारते बड़े कठौते
घाव हुआ तलवार दुधारी
जनमत सत्ता और जुवारी
आश्वासन भूखे को न्यौते

मरा एक रोटी को कोई
पर तेरही पर महाभोज है
उत्सवजीवी इस समाज का
यह कैसा त्योहार रोज है

कैसी पूजा मान मनौते
उँगली पर गिनता त्योहारी
ले जाएगा धूर्त पुजारी
भक्तजनों के चढ़े चढ़ौते


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