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कविता

कोई चिनगारी तो उछले

यश मालवीय


अपने भीतर आग भरो कुछ
जिस से यह मुद्रा तो बदले

इतने ऊँचे तापमान पर
शब्द ठिठुरते हैं तो कैसे
शायद तुमने बाँध लिया है
खुद को छायाओं के भय से
इस स्याही पीते जंगल में
कोई चिनगारी तो उछले

तुम भूले संगीत स्वयं का
मिमियाते स्वर क्या कर पाते
जिस सुरंग से गुजर रहे हो
उसमें चमगादड़ बतियाते
ऐसा राग भैरवी छेड़ो
आ ही जायँ सबेरे उजले

तुमने चित्र उकेरे भी तो
सिर्फ लकीरें ही रह पाईं,
कोई अर्थ भला क्या देतीं
मन की बात नहीं कह पाईं
रंग बिखेरो कोई रेखा
अर्थों से बच कर क्यों निकले


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