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कविता

ऐसी हवा चले

यश मालवीय


काश तुम्हारी टोपी उछले
ऐसी हवा चले
धूल नहाएँ कपड़े उजले
ऐसी हवा चले

चाल हंस की क्या होगी
जब सब कुछ काला है
अपने भीतर तुमने
काला कौवा पाला है
कोई उस कौवे को कुचले
ऐसी हवा चले

सिंहासन बत्तीसी वाले
तेवर झूठे हैं
नींद हुई चिथड़ा, आँखों से
सपने रूठे हैं
सिंहासन-दुःशासन बदले
ऐसी हवा चले

राम भरोसे रह कर तुमने
यह क्या कर डाला
शब्द उगाए सब के मुँह पर
लटका कर ताला
चुप्पी भी शब्दों को उगले
ऐसी हवा चले

रोटी नहीं पेट में लेकिन
मुँह पर गाली है
घर में सेंध लगाने को
आई दीवाली है
रोटी मिले, रोशनी मचले
ऐसी हवा चले


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