सिर उठाता ज्वार
खिंच गई नभ तक यकायक
लहर की मीनार
ज्वार का उठना, उचककर
लंबवत होना
घूँट पीकर अश्रु का फिर
यथावत होना
तट अकेला और उस पर
अनगिनत बौछार
एक परछाईं सुबह से
शाम हिलती है
प्रेत को अनवरत
मानुस-गंध मिलती है
दिग्भ्रमित है नाव ज्यों
अभिशप्त हो पतवार