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कविता

बर्फ-बर्फ दावानल

यश मालवीय


कसी मुट्ठियाँ
तपते माथे
गुमसुम सा कोलाहल
धुआँ धुआँ से
उजले चेहरे
बर्फ-बर्फ दावानल

सुबह सुबह की आपाधापी
भाप भरा संवाद
नरभक्षी मौसम के मुँह फिर
लगा खून का स्वाद
सुनो नतीजा
फिर मौसम का
तरह तरह की अटकल
झुक झुक आए
छत पर लेकिन
राख हो गए बादल

तेज किए नाखून हवा ने
उफ! हैरत-अंगेज
भरी जनवरी गरमाए हैं
अखबारों के पेज
एक सरीखे
दिन लगते हैं
छाती ऊपर पीपल
चिथड़े चिथड़े
छितरा कुहरा
झँझरी झँझरी कंबल


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