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कविता

शब्द का सच

यश मालवीय


गीत को स्वेटर सरीखा
बुन रहा हूँ
समय की पदचाप
जैसे सुन रहा हूँ

साँस में संवेदना के
स्वर सजे हैं
रात गहरी है
न जाने क्या बजे हैं
अक्षरों के फूल
क्रमशः चुन रहा हूँ

पंक्तियों में ज्यों
पिरोई है प्रतीक्षा
आँच मन की
दे रही है अग्नि-दीक्षा
पर्व का एकांत
पल-पल गुन रहा हूँ

सोच के आकाश से
बादल हटाकर
भाव से अतिरंजना के
पल घटाकर
शब्द का सच
रुई जैसा धुन रहा हूँ


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