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कविता

हम मुगलसराय हुए

यश मालवीय


स्टेशन की किच-किच
और हाय-हाय हुए
हम मुगलसराय हुए

बहुत बड़े जंक्शन की
अपनी तकलीफें हैं
गाड़ी का शोर और
सपनों की चीखें हैं
सुबह की बनी रखी
दुपहर की चाय हुए
हम मुगलसराय हुए

ताले-जंजीरें हैं
नजरें शमशीरें हैं
शयनयान में जागीं
उचटी तकदीरें हैं
धुंध-धुआँ कुहरे से
धूप के बजाय हुए
हम मुगलसराय हुए

साँस-साँस मरते हैं
दुर्घटना जीते हैं
आग है व्यवस्था की
आदमी पलीते हैं
पटरी पर ही आकर
कटी नीलगाय हुए
हम मुगलसराय हुए

लकड़ी से अकड़े हैं
सर्दी से जकड़े हैं
हम गीले कोयले से
आग नहीं पकड़े हैं
बिना रिजर्वेशन भी
नींद के उपाय हुए
हम मुगलसराय हुए

हड्डी ही हड्डी है
लहू-लहू लोरी है
किस्से बलिदानी हैं
समय की अघोरी है
खिड़की की आँखों में
ज्यों पन्ना धाय हुए
हम मुगलसराय हुए


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