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कविता

लोग अजब हैं

यश मालवीय


लोग अजब हैं
भाषण का सुख लेते हैं
गूँगों के आगे भी
माइक देते हैं

तरह-तरह की हलचल है
सरगर्मी है
यहाँ हादसे भी तो
उत्सवधर्मी हैं
अपने ही दुश्मन हैं
और चहेते हैं

जितने चेहरे
उससे ज्यादा शीशे हैं
मर्ज बहुत मामूली
ऊँची फीसें हैं
उम्मीदों के
नकली अंडे सेते हैं

बादल हो तो
चोटें गहरी-गहरी हैं
सूरज हो तो
ये जलती दोपहरी हैं
इसकी-उसकी-अपनी
गर्दन रेते हैं


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