चीख सुनें क्या
मेजों पर रखी पसलियों की
मोमबत्तियाँ जलतीं
पीठ पर मछलियों की
नजर में छुरी काँटे
स्वाद का समंदर है
पौरुष है साँसों में
हाथों में खंजर है
खैर नहीं
पढ़ने को जा रही मछलियों की।
भेड़िए भुखाए हैं
तारीखें नंगी हैं
चर्चे कानूनों के
बातें बेढंगी हैं
उलझी-सी डोरी है
वक्त की तकलियों की।
जख्मी है सुबह
बदन पर निशान नीले हैं
रस्ते हैं खून में नहाए से,
गीले हैं
बरसाते हैं सिर पर
टूटती बिजलियों की।