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कविता

मैं समय की धार में

मधु शुक्ला


मैं समय की धार में बहती अचानक
आ लगी हूँ रेत-सी तट से तुम्‍हारे।
         
रेत में कुछ शंख भी हैं सीपियाँ भी
कैद इसमें वक्‍त की अनुभूतियाँ भी
भूल कर अपनी धारा अस्तित्‍व अपना
आ टिकी हूँ बेल-सी वट से तुम्‍हारे।

भटकती फिरती तटों पर दिन-दुपहरी
लौट आई प्‍यास की मारी टिटहरी
छोड़कर मेघों भरा आकाश सारा
चाह में दो बूँद की घट से तुम्‍हारे।
         
मौसमों का दूर तक आभास कब था ?
हाथ में आठों प्रहर मधुमास कब था ?
शब्‍द-लय-सुर-ताल-नव रस-छंद लौटे
बाँसुरी में आज बँसवट से तुम्‍हारे।

ये महज संयोग है या लेख विधि का
टूटता यूँ ही नहीं घेरा परिधि का
मैं बनाती राह खुद पगडंडियों सी
आ मिली हूँ आज पनघट से तुम्‍हारे।
 


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