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कविता

निरुत्तर हूँ

मधु शुक्ला


तर्क गूँगे हो गए सब
मौन सा स्‍वर हूँ
मैं तुम्‍हारे प्रश्‍न के
आगे निरुत्तर हूँ
           
प्रश्‍न है नाजुक तुम्‍हारा
खुरदुरी मेरी सतह
और उस पर द्वंद्व की
ये नागफनियाँ बेवजह
शब्‍द से जो है परे
वह दृष्टि कातर हूँ

फिर रही हूँ मैं हवाओं में
विचारों की तरह
न तो धरती है न अंबर
कौन सी मेरी जगह ?
शून्‍य में हूँ या कि मैं
ऊँचे शिखर पर हूँ
           
कल्‍पनाओं के उभरते
बिंब धुँधले हो चुके
पंख की तुम बात करते
पाँव की तुम बात करते
पाँव मेरे खो चुके
अब अहिल्‍या की तरह
बस एक पत्‍थर हूँ

चल रही इस कश्‍मकश का
दिख न पाता छोर है
पाँव के नीचे हमारे
काँपती इक डोर है
मिट गई जिसकी लकीरें
वो मुकद्दर हूँ

जिंदगी की मैं अधूरी
रूप रेखा सी हुई
आज खुद से ही पराजित
चित्रलेखा सी हुई
हो न पाया जा सफल
मैं वो स्‍वयंवर हूँ

विष छुपा है या कि अमृत
अब समय मंथन करें
गर्भ में इसके उतरकर
अनवरत चिंतन करें
मैं सदी की हलचलों का
वो समंदर हूँ
           
मैं तुम्‍हारे प्रश्‍न के आगे
निरुत्तर हूँ
 


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